Monday 5 December 2011

"चलो कहीं पर घूमा जाए"

चलो  कहीं  पर  घूमा   जाए,
थोड़ा  मन  हल्का  हो  जाए।

सबके   अपने -अपने   ग़म   हैं,
किस ग़म को कम आँका जाए।

अनहोनी   को   होना   होता,
पागल  मन  को कौन बताए।

आँखों   में  सागर  छलका है,
खारा  जल   बहता  ही जाए।

कैसे  पल   हैं,  भीगी   पलकें,
गीली   आँखें   कौन  सुखाए।

कहाँ   गये   हैं   जाने   वाले,
चलो  किसी  से  पूछा  जाए।

आना-जाना नियति सृष्टि की,
गये  हुये   को  कौन  बुलाए।

तुम  तो   चले   गये  निर्मोही,
बीता कल, मन भुला न पाए।
-आनन्द विश्वास

Friday 18 November 2011

"मेरी कार, मेरी कार"

मेरी    कार,    मेरी    कार,
सरपट   दौड़े,   मेरी   कार।
पापा  को  ऑफिस ले जाती,
मम्मी  को  बाजार  घुमाती।
कभी  द्वारका , कभी आगरा,
सैर -  सपाटे   खूब  कराती।
भैया  के   मन  भाती  कार,
मेरी    कार,    मेरी   कार।
जब  शादी  में  जाना  होता,
या  मंदिर  में जाना   होता।
इडली,  ढोसापीजा,  बर्गर,
जब  होटल में  खाना  होता।
सबको   लेकर  जाती  कार,
मेरी    कार,     मेरी    कार।
बस  के धक्के और धूल  से,
गर्मी   हो   या  पानी  बरसे।
मुझे    बचाती,   मेरी   कार,
खाँसी   भागी, मनवा  हरसे।
और  न आता  कभी  बुखार,
मेरी    कार,    मेरी    कार।
छोटा   भैया    कहता - दीदी,
सभी  खिलोने  ले  कर चलते।
घर - घर  खेलेंचलो कार  में,
पापा-मम्मी  खुश-खुश  रहते।
जब  से   आई,  घर   में  कार,
मेरी     कार,     मेरी    कार।
-आनन्द विश्वास

Sunday 16 October 2011

ये सोना, ये चाँदी

 ये सोना, ये चाँदी


ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,  ये    मोती,
ये   किस   काम   के    हैं,    नगीना   नहीं   हैं।  
चाहते  हैं  जो  धन  को, 
कोसते  है  जो  मन  को।
सच   कहूँ जिन्दगी   उनकोजीना  नहीं  है,
ये   सोना,   ये   चाँदीये   हीरे,   ये    मोती।

कौन   क्या   है   न   जानोकिसी  को   कभी,
बनो   खुद   ही    ऐसे ,   कि     जानें     सभी।
काम      इतना       करो 
घन   की    उपमा   बनो।
फिर   बहे     जो   पसीना,   पसीना    नहीं   है,
ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,   ये    मोती।
 
हार    जाओ      भले,     हार     मानो     नहीं,
तन   से   हारो   भलेमन    से   हारो     नहीं। 
होड़    खुद     से   करो,   
कल   से   बेहतर   बनो।
नेक    इंसा   से    बेहतरकोई    भी   नहीं   हैं.
ये   सोना,   ये   चाँदीये    हीरे,   ये     मोती।  

अमर   प्यार   है,   क्यों   मरे    जा    रहे    हो,
बनाने    को    हस्ती,    मिटे     जा    रहे   हो।
गुलाबी  सी  बोतल  में, 
देख   तुम  जो   रहे हो।
सामने     आयना    है,     हसीना    नहीं    है,
ये   सोना,  ये   चाँदीये   हीरे,   ये     मोती।
 
                                   ...
आनन्द विश्वास 

Thursday 13 October 2011

जिन्दगी सँवार लो

दीप   लौ   उबार  लो, शीत  की  वयार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

साँस   भी   घुटी-घुटी,
आस  भी  छुटी-छुटी।
प्यास  प्रीति की लिये,
रात   भी   लुटी-लुटी।
रात  को   सँवार  लो,  चन्द्र   के  दुलार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

दीप  के   नयन  सजल,
सूर्य   हो   गया  अचल।
तम सघन को देख-देख,
रात   गा   रही  गज़ल।
रात   को   बुहार  दो,  भोर   के  उजार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

गुलाब   अंग   तंग  हैं,
कंटकों   के   संग   हैं।
क्या    यही  स्वतंत्रता,
कैद   क्यों  विहंग  हैं।
बंधनों  को  काट  दो, नीति  की  दुधार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।

राम-राज    रो    उठा,
प्रीति-साज   सो  उठा।
स्वार्थ-द्वेष-राग     का,
समाज आज  हो उठा।
समाज  को  उबार  लो, द्वेष  के  विकार  से,
जिन्दगी  सँवार  लो,  प्रीति  की  फुहार  से।
-आनन्द विश्वास


Tuesday 11 October 2011

कुछ मुक्तक और ......


कुछ मुक्तक और...

उम्र भर तो  गला, और  कितना गलूँ,
उम्र भर  तो घुला, और कितना  घुलूँ।
पूछता  है  जनाज़ा, चिता  पर  पहुँच,
उम्र भर तो  जला, और  कितना जलूँ। 

***************************

विश्वास  पर  विश्वास  देता जा रहा हूँ,
हर  नयन  की  पीर  लेता  जा रहा हूँ।
साँस  की  पतवार  का ले  कर सहारा,
जिन्दगी  की  नाव  खेता  जा  रहा हूँ। 

***********************************************   

ह्रदय की हर कली सूखी, कि पांखों में   नही मकरंद बाकी है,
ह्रदय की लाश बाकी है, कि सांसों  में  नहीं अब गंध बाकी है।
ह्रदय तो था तुम्हारा ही, ये सांसें भी तुम्हारे नाम  कर दीं थी,
तुम्हारे प्यार  की सौगंध, कि प्राणों  में नहीं  सौगंध  बाकी है।

*************************************
...आनन्द विश्वास.

Thursday 29 September 2011

मिटने वाली रात नहीं.

दीपक की है क्या बिसात, सूरज  के वश की बात नहीं,
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।

चारों ओर  निशा का शासन,
सूरज भी  निस्तेज  हो गया।
कल तक जो  पहरा  देता था,
आज वही  चुपचाप सो गया।
सूरज  भी   दे  दे  उजियारा, ऐसे  अब   हालात  नहीं,
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।

इन कजरारी काली रातों में,
चंद्र-किरण भी लुप्त हो गई।
भोली-भाली  गौर  वर्ण थी,
वह रजनी भी ब्लैक हो गई।
सब  सुनते  हैं, सहते  सब,  करता  कोई  आघात  नहीं,
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।

सूरज  तो  बस  एक चना है,
तम का शासन बहुत घना है।
किरण-पुंज  भी  नजरबंद  है,
आँख  खोलना  सख्त मना है।
किरण-पुंज  को मुक्त  करा  दे, है  कोई  नभ-जात नहीं,
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।

हर  दिन    सूरज   आये  जाये,
पहरा  चंदा  हर  रोज लगाये।
तम  का  मुँह काला  करने  को,
हर शाम दिवाली दिया जलाये।
तम भी नहीं  किसी से कम है, खायेगा  वह  मात नहीं, 
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।

ढ़ह सकता है कहर तिमिर का,
नर-तन यदि मानव बन जाये।
हो  सकता  है  भोर   सुनहरा,
मन का दीपक यदि जल जाये।
तम  के  मन में  दिया जले, तब  होने  वाली  रात नहीं,
चलते-चलते  थके  सूर्य,  पर  मिटने  वाली  रात  नहीं।
 -आनन्द विश्वास


Sunday 25 September 2011

"मैं कैसे तुमसे प्यार करूँ"

तुम्हीं बताओ  कीट सखेमैं  कैसे   तुमसे  प्यार  करूँ।
जब  जल  कर करता  उजियारा,
तब   तुम     प्रीति   दिखाते  हो।
सच्चा   प्रेम   अगर  तुम   करते,
तो  बुझने पर क्यों  ना आते  हो।
मत समझो मैं पागल तुम सा,जो हर राही से प्यार करूँ.
तुम्हीं  बताओ कीट सखेमैं  कैसे   तुमसे   प्यार  करूँ।

तुम  मस्त  मरिंदे   सम  ठहरे,
जो डोला करते फूल-फूल पर।
खा कर  के सौगंध  कहो  तुम,
ना  डोला करते दीप-दीप पर।
तुम  मतलब  के मीत  सखेरिश्ता कैसे स्वीकार  करूँ,
तुम्हीं  बताओ कीट सखेमैं  कैसे   तुमसे  प्यार  करूँ।

जब   चंदा    करता   उजियारा,
तब    चकोर     ललचाता   है।
क्या दिन   में  भी कहीं  चकोर,
ऊपर   को   आस   लगाता है।
वे सोचे समझे क्यूँ  तुमसे,कुछ सांसों का व्यापार  करूँ,
तुम्हीं  बताओ कीट  सखेमैं   कैसे  तुमसे  प्यार करूँ।

तेल   है    मेरा   जीवन    साथी,
जो  जलता है मुझे जिलाने को।
माना    तुम    भी    जल  जाते,
अपनापन   मुझे   दिखाने  को।
बिना तेल अस्तित्वहीन मैं,किस ओर थिरकते पाँव धरूँ,
तुम्हीं   बताओ  कीट  सखेमैं  कैसे तुमसे प्यार करूँ।
-आनन्द   विश्वास

Wednesday 21 September 2011

जीवन जीना एक कला है


जीवन जीना एक कला है

जीवन   जीना   एक   कला   है,
मन  उजला  तो, जग उजला है।
इस  जीवन  में  कदम-कदम पर,
मन  की   रोज   परीक्षा   होती।
लेखा - जोखा   होता  पल - पल,
जिसकी    रोज   समीक्षा  होती।
निर्मल  मन  हो, निर्मल  तन हो,
निर्मल  धन  हो, जो  भी   आये।
जीवन  अपना  धन्य  समझ  लो,
जीवन  यदि   निर्मल  हो  जाये।
करो   समर्पित  जीवन   अपना,
जो  भी  तुमको  काम  मिला है।
संयम,   निष्ठाशुद्ध - कर्म   ही, 
जीवन   की  आधार - शिला  है।
जो   तुम  दोगेवही   मिलेगा,
सुख  दोगे   तोसुख   पाओगे।
बात   बहुत  सीधी  हैलेकिन,
क्या  तुम   इसे   समझ पाओगे।
यह   जीवन  अनमोल  रतन  है,
एक   बार   मुश्किल  से   पाया।
दिव्य - शक्ति  के  हो  जाओ तुम,
छोड़ो   जग   की  मिथ्या-माया।
अन्तहीन       इच्छायें      होतीं, 
कब  तक  इसका  भ्रम  पालोगे।
मन  की   चंचल  चाल  निराली,
क्या   तुम   इसे  पकड़   पाओगे।
वशीभूत   मन    के   मत   होना,
कहती   यह   भगवत   गीता  है।
निज   विवेक  सद-बुध्दि जगाओ,
मन   जीता   तो   जग  जीता  है।
मानव - तन   मन्दिर  है   पावन,
मन - वीणा   झंकृत   कर  डालो।
रोम - रोम  पुलकित   हो   जाये,
दिव्य - प्रेम  की ज्योति जगा लो।
ढाई   गज  का  वस्त्र  पहन   कर,
ढाई   किलो   की   राख   बनेगा।
ढाई   आखर   प्रेम   में   रम  जा, 
मानव   तन  कब   और  मिलेगा।

                                      ....
आनन्द विश्वास