Thursday 11 August 2011

शासन का संयोजन बदलो.


शासन का संयोजन बदलो.

सूरज,
जो हमसे है दूर, बहुत ही दूर.
और फिर चलने से मजबूर,
पंगु बिचारा , हिलने से लाचार.
करेगा कैसे तम संहार.
जिसके पाँव धरा पर नहीं,
रहे हो रंग महल के नील गगन में.
उसको क्या है फ़र्क,
फूल की गुदन, और शूल की खरी चुभन में.
जो रक्त-तप्त सा लाल, दहकता शोला हो,
वो क्या प्यास बुझाएगा, प्यासे सावन की.
जिसका नाता, केवल मधु-मासों तक ही सीमित हो,
वो क्या जाने बातें, पतझर के आँगन की.
जिसने केवल दिन ही दिन देखा हो,
वो क्या जाने, रात अमाँ की कब होती है.
जिसने केवल दर्द प्यार का ही जाना हो,
वो क्या जाने पीर किसी वेवा की कब रोती है.
तो, सच तो यह है -
जो राजा जनता से जितना दूर बसा होता है,
शाशन में उतना ही अंधियार अधिक होता है .
और तिमिर -
जिसका शाशन ही पृथ्वी के अंतस में है,
कौना-कौना करता जिसका अभिनन्दन है.
दीपक ही -
वैसे तो सूरज का वंशज है,
पर रखता है, तम को अपने पास सदा.
वाहर से भोला भाला,
पर उगला करता श्याह कालिमा ,
जैसे हो एजेंट, अमाँ के अंधकार का.
और चंद्रमा -
बाग डोर है, जिसके हाथो, घोर रात की,
पहरेदारी करता - करता सो जाता है,
मीत, तभी तो घोर अमावस हो जाता है.
तो, इसीलिए तो कहता हूँ,
शाशन का संयोजन बदलो,
और धरा पर, नहीं गगन में,
सूरज का अभिनन्दन कर लो.

         ... आनन्द विश्वास

Saturday 6 August 2011

सुन लो भैया, कान खोल कर

सुन लो भैया, कान खोल कर

मानव - मन चंचल होता  है, ये मानव की लाचारी, 
सुन  लो  भैयाकान खोल करहम हैं भ्रष्टाचारी।

जिसको जितना मिलाजहाँ पर, वहीं उसी ने खाया,
तुम  भी   ढूँढो  ठौर-ठिकानाक्यों  रोते हो भाया।
मैंने पाया , तुम्हें मिला नाइसमें  मेरा दोष नहीं है, 
क्यों  जलते  होबड़े भाग्य से, मिलती ऐसी  माया।

स्वीपर लेता 'चाय - पानी', बाबू लेता 'खर्चा-पानी',
और कहीं पर  'हफ्ताचलताऔरकहीं 'मनमानी'
कोई  तो  'ताबूतमें खुश हैकोई  'खान- खनन' में,
कोई 'चारा',कोई 'टू-जी', कोई खाता 'खेल-खेल' में।

सबके सब अपनी जुगाड़ में,बजा रहे हैंअपनी ढ़परी, 
जिसमें  कुछ मिल जाये  भैय्या, कोई ऐसा खेल करो। 
या  फिर  घूमो  झंडे लेकरऔर पुलिस के खाओ डंडे,
या फिर अनशन करने बैठो,और पुलिस की जेल भरो।

आती माया किसे न भाती,जीवन में सुख-सुविधा लाती,
भ्रष्टाचार बसा नस-नस में, इसे मिटाना क्या है बस में।
मन पागल  ठगनी-माया में, चकाचौंध चंचल छाया में,
कंचन-मृग सीता मन डोला,मानव-मन  कैसे हो वश में।           
भ्रष्टाचार मिटाने   वालोकाले  धन  को लाने  वालो,
अनशन  कोई मार्ग नहीं है, मन को हमें बदलना होगा।
भ्रष्ट आचरण  मन से होता,मन से तन संचालित होता,
नैतिकता  का पाठ पढ़ा करनिर्मल इसे बनाना होगा।

ऐसी  अलख  जगाओ  भैय्या,  नैतिकता का  मूल्य बढे,
मन निर्मल हो गया अगर,तो तन भी अच्छे काम करेगा।
नैतिकतानिष्ठा  होगी  तोबुरा  कोई काम करेगा,
विश्व-जयी तब देश बनेगा और विश्व  में  नाम करेगा।

                                          ...
आनन्द विश्वास